कोंपले फिर फूट आई
तुमने पूछा है कि कहा जाता है कि लोकतंत्र का मूल आधार है विचार–स्वातंत्र्य। और मेरे जीवन भर का अनुभव यह कहता है कि विचार की स्वतंत्रता कहीं भी नहीं है। ना चाहते हैंअभी-अभी मैं सारी दुनिया का चक्कर लगाकर आया हूंनहीं कोई देश है जमीन पर, जहां तुम स्वतंत्र हो वही कहने को, जो तुम्हारे हृदय में उपजा है। तुम्हें वह कहना चाहिए जो लोग सनना चाहते हैं। बहुत से देश चाहते थे कि मैं उनका निवासी बन जाऊंय कि उन्हें लगता था, मेरे कारण हजारों-हजारों संन्यासियों का आना होगा, आर्थिक लाभ होगा उनके देश को। मुझसे उन्हें मतलब न था, मतलब इस बात से था कि हजारों व्यक्तियों के आने से उनके देश की संपदा बढ़ेगी। लेकिन उन सबकी शर्ते थीं। और आश्चर्य तो यह है, कि सब की शर्ते समान थींहर देश की शर्ते थी कि हम खुश हैं कि आप यहां रह जाए, लेकिन आप सरकार के खिलाफ कुछ भी न बोलें और आप इस देश के धर्म के खिलाफ कुछ भी न बोलें। बस ये दो चीजों का वजन, इन दो शर्तों को अगर आप पूरा करें, तो आपका स्वागत है। वही हालत इस देश में भी है।
जिंदगी भर मुझे दफ्तरों से, सरकारी अदालतों से समन्स मिलते रहे हैं, कोर्ट में उपस्थित होने की आज्ञा मिलती रही है। क्योंकि किसी व्यक्ति ने कोर्ट में निवेदन कर दिया कि मैंने जो कुछ कहा है, उससे उसके धार्मिक भाव को चोट पहुंच गयी।
यह बड़े मजे की बात है तुम्हारा धार्मिक भाव इतना लचर, इतना कमजोर, कि कोई कुछ उसके विरोध में कह दे तो उसे चोट पहुंच जाती है। तो ऐसे लचर और कचरे भाव को फेंको। तुम्हारे र भीतर का धर्म तो मजबूत स्टील का होना चाहिए। ये कहां के सड़े-गले बांस तुम उठा लाए हो। और जो भी व्यक्ति किसी अदालत के सामने जाकर कहे कि उसके धार्मिक भाव को चोट पहंची है, अदालत को चाहिए कि उस आदमी पर मुकदमा चलाए कि ऐसा धार्मिक भाव तुम अपने भीतर रखते क्यों हो? तुम्हें कुछ मजबूत और शक्तिशाली जीवन चिंतना नहीं मिलती? तुम्हें कोई विचारधारा नहीं मिलती, जिसको कोई चोट न पहुचा सक? मन ता आज तक किसी अदालत से नहीं कहा कि मेरे धार्मिक भाव को कोई चोट पहुंची है। मैं तो प्रतीक्षा कर रहा हूं उस आदमी की, जो धार्मिक भाव को चोट पहुंचा देमैं तो सारी दुनिया में उसको आमंत्रित करता हआ घमा हं. कि कोई आए और मेरे धार्मिक भाव को चोट पहुंचा देक्योंकि मेरा धार्मिक भाव मेरा अपना वाले का नहाती किसकी है? तुम अनुभव है। तुम उसे चोट कैसे पहुंचा सकोगे? लेकिन लोगों के धार्मिक भाव उधार हैं, बासी हैं, दूसरों के हैं, अपने नहीं हैं। किसी ने कान फंके हैं, गरुमंत्र दिए हैं. और इन उधार बासी बातों पर इस रेत पर उन्होंने अपने महल खड़े कर लिए हैं। जरा सा धक्का दो, तो उनके महल गिरने लगते हैं। महल हिल जाते हैं, कंपायमान हो जाते हैं। लेकिन इसमें कसूर धक्के देने वाले का नहीं है। तुम रेत पर महल बनाओगे तो गलती किसकी है? तुम पानी पर लकीरें खींचोगे और मिट जाएं, तो जिम्मेवारी किसकी है? और अगर यह सच है कि किसी धर्म के. किसी चिंतन के विरोध में बोलना अपराध है, तो कृष्ण ने भी अपराध किया है, बुद्ध ने भी अपराध किया है, जीसस ने भी अपराध किया है, मोहम्मद ने भी अपराध किया है, कबीर ने भी नानक ने भी। इस दुनिया में जितने विचारक हुए हैं, उन सबने अपराध किया है, भयंकर अपराध किया है। क्योंकि उन्होंने निर्दयी भाव से, जो गलत था उसे तोडी है। और जो गलत से बंधे थे उनको स्वभावतः चोट पहुंची होगी। अगर अब दुनिया में कबीर पैदा नहीं होते, अगर अब दुनिया में बुद्ध पैदा नहीं होते, तो तुम्हारा लोकतंत्र जिम्मेवार है। अजीब बात है। लोकतंत्र में तो गांव-गांव कबीर होने चाहिए, घर-घर नानक होने चाहिएजगह-जगह सुकरात होने चाहिए, मंसूर होने चाहिए। क्योंकि लोकतंत्र का मूल आधार है विचार की स्वतंत्रता।
लेकिन हर आदमी को हिम्मत करनी चाहिए विचार की स्वतंत्रता कीयह मुसीबत को बुलाना है। यह अपने हाथ से बैठे-बिठाए झंझट मोल लेनी हैलेकिन यह झंझट मोल लेने जैसी हैक्योंकि इसी चुनौती से गुजरकर तुम्हारी जिंदगी में धार आएगी, तुम्हारी प्रतिभा में तेज आएगा, तुम्हारी आत्मा में आभा आएगी। दूसरों के सुंदरतम विचार ढोते हुए भी तुम सिर्फ गधे हो, जिसके ऊपर गीता और कुरान और बाइबिल और वेद लदे हैंमगर तुम गधे हो। तुम यह मत समझने लगना कि सारे धर्मशास्त्र मेरी पीठ पर लादे हैं, अब और क्या चाहिए? स्वर्ग के द्वार पर फरिश्ते बैंड-बाजे लिए खड़े होंगे, , अब देर नहीं है। __ अपना छोटा सा अनुभव, स्वयं की अनुभूति से निकला हुआ छोटा सा विचार, जरा सा बीज तुम्हारी जिंदगी को इतने फूलों से भर देगा जिदगा का इतन फूला स भर दगा कि तुम हिसाब न लगा पाओगे। क्या तुमने कभी यह खयाल किया है कि एक छोटे से बीज की क्षमता कितनी है? एक छोटा सी बीज पूरीपृथ्वी को फूलों से भर सकता हैलेकिन बीज जिंदा होना चाहिएविचार जिंदा होता है, जब तुम्हारे प्राण में पैदा होता है, जब उसमें तुम्हारे हृदय की धड़कन होती है, जब उसमें तुम्हारा रक्त बहता है, जब उसमें तुम्हारी सांसें चलती हैं। विचार की स्वतंत्रता चाहिए, लेकिन कोई उसे तुम्हें देगा नहीं, तुम्हें उसे लेना होगा। इस भ्रांति को ए छोड़ दो कि सिर्फ तुमने अपने . विधान को लोकतंत्र का विधान कह दिया तो समझ लिया, कि विचार की स्वतंत्रता उपलब्ध हो गयी। क्या। खाक विचार करोगे? स्वतंत्रता भी उपलब्ध हो जाएगी तो विचार क्याकरोगे? जो अखबार में पढ़ोगे वहीतुम्हारी खोपड़ी में घूमेगा। विचार प्रयोग है। सबस पांकि अभी करने के लिए विधान में तम्हारे स्वतंत्रता की गारंटी काफी नहीं हैविचार की स्वतंत्रता बडा अनठा प्रयोग है। सबसे पहले तो विचार से मुक्त होना होगा। क्योंकि अभीतुम्हारे पास सब दूसरों के विचार है। पहले यह कचरा दूसरों के विचारों का हटाना होगा। इसको हमने इस देश में ध्यान कहा हैध्यान का अर्थ है, दूसरे के विचारों से मुक्तिऔर तुम हो जाओ एक कोरे कागजय एक सादे, भोले-भोलेबच्चे का मन, जिस पर कोई लिखावट नहीं है। और तुम्हारी अंतरात्मा से उठने लगते हैं. जगनेलगते हैं. खिलने लगते हैं वे, जिन्हेंस्वतंत्र विचार कहा जाने बाहर से नहीं आते, वे तुम्हारे भीतर से - ऊगते हैंऔर जब तुम्हारे पास . अपना विचार हो, तो चाहे सरकारें लोकतंत्र की बातें करें या न करें, ला तुम्हारा विचार तुम्ह इतना साहस आर बदल दगा, कि तुम बड़ा स बड़ी सरकार से टक्करें ले सकते हो। सारी दुनिया में लोकतंत्र असफल है, क्योंकि उसका पहला चरण पूरा नहीं किया गया है। पहला चरण ध्यान तंत्र है। केवल ध्यान और केवल ध्यान। वह तम्हारी आंखों में वह चमक, तुम्हारी आंखों मग वह गहराई और वह तेजी, तुम्हारे देखने में वह तलवार पैदा कर देता है, जो असत्यों को काट देती है। और लाख गहराइयों छिपा हुआ सत्य हो तो भी उसेउघाड़ लेती है, खोज लेती है। और दुनिया में अगर हजारों लोग ध्यान निष्णात हो जाए तो विचार की स्वतंत्रता होगी। उस विचार की स्वतंत्रता से लोकतंत्र पैदा होगा। लोकतंत्र से विचार की स्वतंत्रता पैदा नहीं हो सकती। कौन करेगा पैदा? दो कौड़ी के राजनीतिज्ञ तुम्हारे संविधान बनाते हैं। फिर ये दो कौडी के राजनीतिज्ञ लोकतंत्र के नाम पर तम्हारी छाती चूसते हैं। एक मजेदार खेल है जो दुनिया में चल रहा है। तुम्हारी सेवा हो रही। मेवा..पुरानी कहावत ठीक हैरू जो सेवा करता है उसको मेवा मिलता है। सेवा तो कहीं दिखाई नहीं पडती मगर मेवा मिल रहा है। उसी मेवे की तलाश में लोग सेवातक करने को राजी हैं ।