दो फकीर एक जंगल में यात्रा करते थे, गुरु और शिष्यबूढ़ा गुरु, युवा शिष्य। युवा शिष्य बहुत हैरान था! हैरान था इसलिए कि ऐसी बात उसने अपने गुरु में कभी देखी ही न थी। कुछ नई ही बात हो रही थी आज। गुरु बार-बार अपनी झोली में हाथ डाल कर कुछ टटोल लेता था। थोड़ी देर में फिर! थोड़ी देर में फिर! झोली में उसका जी अटका था। शिष्य सोचता था कि क्या झोली में है आज! उसे कभी चिंतित नहीं देखा। उसे कभी झोली में बार-बार झांकते नहीं देखा। आज क्या माजरा है! फिर सांझ होने लगी, सूरज ढलने लगा। वे एक कुएं पर हाथ-मुंह धोने, थोड़ा विश्राम करने, थोड़ा कलेवा कर लेने को रुके। गुरु पानी भरने लगा। झोला उसने अपने शिष्य को दिया और कहा, जरा सम्हाल कर रखना! ऐसा भी उसने कभी कहा न था। झोला यूं ही रख देता था। न मालम कितने घाटों पर और न मालूम कितने कुओं पर रुकना हुआ था। आज क्या बात है! उत्सकता जगी। जब गुरु पानी भरने लगा, तो शिष्य ने झांक कर झोले में देखा। सोने की एक ईंट झोले में थी! सब राज खुल गया। उसने ईंट को तो निकाल कर झोले के बाहर कुएं के पास फेंक दिया एक गड्ढे में और उसी वजन का एक पत्थर झोले में रख दिया। गुरु ने जल्दी से हाथ-मुंह धोया, नाश्ता किया। बीच-बीच में झोले पर नजर भी रखी। एक-दो बार चेताया भी शिष्य को कि झोले का खयाल रखना। शिष्य हंसा, उसने कहा, पूरा खयाल हैय आप बिलकुल बेफिक रहें। चिंता की अब कोई बात ही नहीं! जैसे ही निपटे, चलने को आगे बढ़े, गुरु ने जल्दी से झोला वापस ले लिया। अक्सर तो यूं होता था कि झोला शिष्य को ही ढोना पड़ता था। आज गुरु शिष्य पर झोले का बोझ डालने को राजी न था! जल्दी से झोला ही से द्योला अपने कंधे पर ले लियाबाहर से ही टटोल कर देखारू वजन पूरा हैय ईंट भीतर है। निश्चिंत हो चलने लगाफिर बार-बार कहने लगा, रात हुई जाती है। दूर किसी गांव का टिमटिमाता दीया भी दिखाई पड़ता नहीं! जंगल है। अंधेरा है। अमावस है। चोर, लफंगे, लुटेरे--कोई भी दुर्घटना घट सकती है। जब भी गुरु यह कहे, शिष्य हंसे। आखिर गुरु ने दो मील चलने के बाद पूछा कि तू हंसता क्यों है? शिष्य ने कहा, मैं इसलिए हंसता हूं कि अब आप बिलकुल निश्चिंत हो जाएं। आपकी चिंता का कारण तो मैं कुएं के पास ही फेंक आया हूं। तब घबड़ा कर गुरु ने झोले में हाथ डाला। देखा तो पत्थर था! सोने की ईंट तो जा चुकी थी! क्षण भर को तो सदमा लगाछाती की धक-धक रुक गई होगी। श्वास ठहरी की ठहरी रह गई होगी। लेकिन फिर बोध भी हुआ। बोध यह हुआ कि दो मील तक झोले में तो पत्थर थालेकिन मैं यूं मान कर चलता रहा कि सोने की ईंट है, तो मोह बना रहाजिंदगी भर भी अगर मैं यह मान कर चलता रहता कि सोने की ईंट है, तो मोह बना रहतामोह ईंट में नहीं था, मेरी भ्रांति में था। मोह ईंट में होता, तो इन दोमीलों तक मोह के होने का कोई कारण न थाय चिंता की कोई वजह न थी। मेरी आसक्ति मेरे भीतर थी, बाहर की ईंट में नहीं। जिंदगी भर भी आसक्त रह सकता था, अगर यह भ्रांति बनी रहती कि ईंट सोने की है। और तत्क्षण भ्रांति टूट गई, जैसे ही जाना कि ईंट पत्थर की है। झोला वहीं गिरा दियाखिलखिला कर हंसावहीं बैठ रहा। कहा, अब कहां जाना है? अब गांव वगैरह खोजने की कोई जरूरत नहींवैसे ही बहुत थके हैं। अब आज रात इसी वृक्ष के नीचे सो रहेंगेशिष्य ने कहा, अंधेरा हैअमावस है! चोर हैं, लुच्चे हैंलफंगे हैं, लुटेरे हैं! गुरु ने कहा, रहने दे। अब कुछ भेद नहीं पड़ता। अब अपने पास ईंट ही नहीं, अपने पास सोना ही नहीं, तो लूटने वाला भी क्या लूटेगा! इसे मैं छूटना कहता हूं। छोड़ा नहीं, छूटा। एक बोध जगा। एक समझ गहरी हुई। एक बात साफ हो गई कि एक बात साफ हो गई कि सब उपद्रव भीतर है, बाहर नहीं। बाहर तो सिर्फ बहाने हैं, निमित्तखंटियां, जिन पर हम अपने भीतर के उपद्रव टांग देते हैं। फिर धन हो, पद हो, प्रतिष्ठा हो, परिवार हो, प्रियजन हों, मित्र हों, देह होमन हो--कोई भी बहाना काम देगा। लेकिन अगर भीतर टांगने को ही कुछ न बचा हो, तो फिर सब बहाने रहे आएं, क्या फर्क पड़ता है!
मैं पनिया भरन से छूट गई...