‘ओशोवाणी’

कामी तृप्त हो सकता है, प्रेमी नहीं!


काम का अंत है, सीमा है प्रेम का कोई अंत नहीं, कोई सीमा नहीं! प्रेम आदि-अनादि है। प्रेम जैसा पहले दिन होता है, वैसा ही अंतिम दिन भी होगा! जो चुक जाए, उसे तुम प्रेम ही मत समझना वह वासना रही होगी। जिसका अंत आ जाए, वह शरीर से संबंधित है! आत्मा से जिस चीज का भी संबंध है, उसका कोई अंत नहीं है। 
अगर मंजिल हो तो मृत्यु हो जाएगी! प्रेम का जो अधूरापन है, वह उसकी शाश्वतता है। इसे ध्यान में रखना कि जो भी चीज पूरी हो जाती है, वह मर जाती है। पूर्णता मृत्यु है! सिर्फ वही जी सकता है शाश्वत, जो शाश्वत रूप से अपूर्ण है, अधूरा है, आधा है और तुम कितना ही भरो, वह अधूरा रहेगा, आधा होना उसका स्वभाव है।
तुम कितने ही तृप्त होते जाओ, फिर भी तुम पाओगे कि हर तृप्ति और अतृप्त कर जाती है। यह ऐसा जल नहीं है कि तुम पी लो और तृप्त हो जाओ, यह ऐसा जल है कि तुम्हारी प्यास को और बढ़ाएगा। इसलिए प्रेमी कभी तृप्त नहीं होता, और इसीलिए उसके आनंद का कोई अंत नहीं है। क्योंकि आनंद का वहीं अंत हो जाता है, जहां चीजें पूरी हो जाती हैं। शरीर भी मिटता है, मन भी मिटता है पर आत्मा तो चलती चली जाती है, निरन्तर, लगातार! वह यात्रा अनंत की है, कोई मंजिल नहीं है!!