ओशोवाणी

जवान लड़कियां संन्यास लेती हैं तो आप उन्हें मां क्यों कहते है?


तुम परमात्मा को पिता क्यों कहते हो? उसकी कोई पत्नी नहीं है, उसके कोई बच्चे नहीं हैं फिर वह पिता कैसे बन गया? ऐसे लोग भी हैं, जो परमात्मा को मा कहते हैं! उसके कोई बच्चे नहीं, फिर उसे मां क्यों कहते हो? ईसाइ पादरी को पिता कहते हो, जबकि वह अविवाहित है, ब्रह्मचारी है! उसे पिता क्यों कहते हो? तुमने इन बातों के बारे में सोचा नहीं होगा क्योंकि यह सदियों से चली आ रही हैं! और हमने उन्हें स्वीकार कर लिया है!
हकीकत यह है कि पिता एक आदर सूचक शब्द है-श्रेष्ठतम आदर जो तुम किसी को दे सकते हो!
मेरी दृष्टि से मा और भी आदरणीय है! क्योंकि बच्चे को पैदा करने में पिता का योगदान बिल्कुल निम्नतम होता है! पूरा निर्माण जो है, वह मा का होता है! मां का सार्वधिक सम्मान होना चाहिए! वह जीवन को निर्मित करती है! स्त्री की उच्चतम गुणवत्ता है, जीवन निर्मित करने की क्षमता! इसलिए मैंने अपनी संन्यासनियों को मा कहा! उनको इस बात का अहसास दिलाने के लिए कि मातृत्व बड़े से बड़े सम्मान से भी बढ़ा है! उन्हें पुरूष से कनिष्ठ होने की जरूरत नहीं!
वस्तुतः इस मामले में वे उनसे श्रेष्ठ हैं! वेदों में ऐसे उदाहरण हैं, जहाँ नवविवाहिता दंपति किसी महान ऋषि के पास आशीर्वाद लेने आते हैं! और जो आशीर्वाद उन्हें मिलता है, वह सचमुच अनूठा है! सारी दुनिया में किसी और धर्म में ऐसा आशीर्वाद नहीं है! वह ऋषि पति को आशीर्वाद देता है कि तुम्हारी पत्नी दस बच्चों की माँ बनेगी और तुम उसके ग्याहरवें पुत्र बनो-पति से कह रहा है कि मां आखिर माँ है! वह तुम्हे दस बच्चे देगी, लेकिन सब कुछ ठीक- ठाक चलता रहा तो तुम उसके ग्यारहवें बच्चे होगे!
अब इस तरह का आशीर्वाद मेरे पक्ष में जाता है, तुम्हारे नहीं! और यह आशीर्वाद इस बात का भी समर्थन करता है कि संभोग कोई कुरूप, घृणित कृत्य नहीं! बह जीवन के बहने की प्रक्रिया है, ठीक वैसे ही जैसे नदी बहती है! शरीर पुराने हो जाते हैं, जीवन नये शरीरों में प्रवेश करता है, पुराने शरीर छोड़ दिए जाते हैं! लेकिन जीवन सदा- सदा चलता रहता है-शास्वत से शास्वत की ओर.! और स्त्री उसका द्वार है!
पुरूष के बिना काम चल सकता है! शायद सिर्फ एक इंजेक्शन काफी होगा! लेकिन स्त्रियों के बिना रहना बहुत मुश्किल है!
स्त्रियों के बिना हम परखनलियों में बच्चे पैदा कर सकते हैं, लेकिन वे मानवीय नहीं होंगे, यांत्रिक होंगे! क्योंकि स्त्री बच्चे को हड्डी, माँस और खून ही नहीं देती, वह उसे बुद्धी भी देती है, भाव भी देती है, प्रेम भी देती है! बच्चे के पास जो भी होता है वह माँ के द्वारा दिया हुआ होता है! परखनली वह सब नहीं दे सकती! बह बच्चे को शाक- सब्जी की तरह जिन्दा तो रख सकती है, लेकिन भाव और बुद्धि नहीं दे सकती!
संन्यास की शुरूआत करने से पहले मुझे इसे सोचना पड़ा ! क्योंकि पुराने शास्त्रों में पुरूषों को संन्यास दिया जाता था, पर स्त्रियों को सदैव वंचित रखा गया! तो पुरूषों के लिए तो नाम है- 'स्वामी' पर स्त्रियों के लिए कोई नाम नहीं है! महावीर ने स्त्रियों को स्वीकार नहीं किया, बुद्ध ने स्वीकार नहीं किया, हिंदुओं के द्वार भी स्त्री के लिए बंद थे! मैं पहला हूँ जिसने स्त्रियों को संन्यास में दीक्षित किया! मुझे नाम खोजना जरुरी था!
मेरी दृष्टि में स्वामी बहुत अच्छा नाम है! उसका इतना ही अर्थ होता है- स्वंय के मालिक बन जाना! लेकिन यह खतरनाक भी है, क्योंकि यह तुम्हे एक तरह की ताकत भी देता है! यह तुम्हें विनम्र नहीं बनाता, उल्टे तुम्हें अंहकारी बनाता है-तुम स्वामी हो।
-सुना है मैंने, ईसाइयत में एक बहुत बड़ा फकीर हुआ, संत फ्रांसिस। बड़ी मीठी कथा है कि संत फ्रांसिस जब ज्ञान को उपलब्ध हुआ, जब उसे परम बोध हुआ, तो पक्षी इतने निर्भय हो गए कि पक्षी उसके कंधों पर आकर बैठने लगे, उसके सिर पर आकर बैठने लगे। नदी के किनारे से निकलता, तो मछलियां छलांग लगाकर उसका दर्शन करने लगती। वृक्षों के पास बैठ जाता, तो जंगली जानवर आकर उसके निकट खड़े हो जाते, उसको चूमने लगते।
यह बात बड़ी मीठी है। और निश्चित ही, जब कोई बहुत शांत हो जाए और बहुत आनंद से भर जाए, तो उसके प्रति दूसरे का जो भय है, वह कम हो जाएगा। यह घट सकता है।
लेकिन इधर मैं पढ़ रहा था, एक जापान में फकीर महिला हुई, उसका जीवन। उसके जीवन. की कथा के अंत में एक बात कही गई है, जो बड़ी हैरान करने वाली है, पर बड़ी मूल्यवान है और कृष्ण की बात को समझने में सहयोगी होगी।
उस फकीर महिला के संबंध में कहा गया है कि जब वह अज्ञानी थी, तब कोई पक्षी उसके पास नहीं आते थे। जब वह ज्ञानी हो गई, तो पक्षी उसके कंधों पर आकर बैठने लगे। सांप भी उसके पास गोदी में आ जाता। जंगली जानवर उसके आस-पास उसे घेर लेते। लेकिन जब वह परम ज्ञान को उपलब्ध हो गई, तो फिर पक्षियों ने आना बंद कर दिया। सांप उसके पास न आते, जानवर उसके पास न आते। जब वह अज्ञानी थी, तब भी नहीं आते थे, जब ज्ञानी हो गई, तब आने लगेय और जब परम ज्ञानी हो गई, तब फिर बंद हो गए।
तो लोगों ने उससे पूछा कि क्या हुआ? क्या तेरा पतन हो गया? बीच में तो तेरे पास इतने पक्षी आते थे। अब नहीं आते? वह हंसने लगी। उसने तो कोई उत्तर न दिया। लेकिन उसके निकट उसको जानने वाले जो लोग थे, उन्होंने कहा कि जब तक उसे ज्ञान का बोध था, तब तक पक्षियों को भी पता चलता था कि वह ज्ञानी है। अब उसका वह भी बोध खो गया। अब उसे खुद ही पता. नहीं है कि वह है भी या नहीं। तो पक्षियों को क्या पता चलेगा! जब उसे खुद ही पता नहीं चल रहा है।
तो झेन में कहावत है कि जब आदमी अज्ञानी होता है और जब आदमी परम ज्ञानी हो जाता है, तब बहुतकृसी बातें एककृसी हो जाती हैं, बहुतकृसी बातें एककृसी हो जाती हैं। क्योंकि अज्ञान में ज्ञान नहीं था। और परम ज्ञान में ज्ञान है, इसका पता नहीं होता। बीच में ज्ञान की एक घड़ी आती है।
वह ज्ञान की घड़ी यही है। तीन अवस्थाएं-स्व तो हम पदार्थ के साथ अपना तादात्म्य किए हैं, शरीर के साथ जुड़े हैं कि मैं शरीर हूं मैं इंद्रियां हूं। यह एक जगत अज्ञान का। फिर एक बोध का जगत, कि मैं शरीर नहीं हूं, मैं इंद्रियां नहीं हूं। मगर यह भी शरीर से ही बंधा है।
यह मैं शरीर नहीं हूं यह भी शरीर से ही जुड़ा है। यह मैं इंद्रिया नहीं हूं, यह भी तो इंद्रियों के साथ ही जुड़ा हुआ संबंध है। कल जानते थे कि मैं इंद्रियां हूं अब जानते हैं कि मैं इंद्रियां नहीं हूं लेकिन दोनों के केंद्र में इंद्रियां हैं। कल तक समझते थे कि मैं शरीर हूं अब समझते हैं कि शरीर नहीं हूं। लेकिन दोनों के बीच में शरीर है। ये दोनों ही बोध शरीर से बंधे हैं।
फिर एक तीसरी घटना घटती है, जब यह भी पता नहीं रह जाता कि मैं शरीर हूं या शरीर नहीं हूं। जब कुछ भी पता नहीं रह जाता। शरीर की मूर्च्छा तो छूट ही जाती है, वह जो मध्य में आई हुई चेतना का ज्वार था, वह भी खो जाता है। शरीर से पैदा होने वाले दुख से तो छुटकारा हो जाता है, लेकिन फिर शरीर से छूटकर जो सुख मिलते थे, उनसे भी छुटकारा हो जाता है। और एक परम शांत, परम मौन, न जहां ज्ञान है, न जहां ज्ञाता है, न जहां ज्ञेय है, ऐसी जो शून्य अवस्था आ जाती है। इस शून्य अवस्था में ही क्षेत्रज्ञ, वह जो अंतिम छिपा है, वह प्रकट होता है। न तो मैं चेतनता, न धृति। ध्यान भी नहीं। धृति का अर्थ है, ध्यान, धारणा। यह थोड़ा खयाल में ले लेना जरूरी है, क्योंकि बहुत बार हम सीढ़ियों से जकड़ जाते हैं। बहुत बार ऐसा हो जाता है कि जो हमें ले जाता है मंजिल तक, उसको हम पकड़ लेते हैं। लेकिन तब वही मंजिल में बाधा बन जाता है।
तो परम ध्यानियों ने कहा है कि तुम्हारा ध्यान उस दिन पूरा होगा, जिस दिन ध्यान भी छूट जाएगा। जब तक ध्यान को पकड़े हो, तब तक समझना कि अभी पहुंचे नहीं।