प्रेम एक पहेली

प्रेम परमात्मा का दूसरा रुप...


प्रेम एक पहेली से कम नही है। सदियों से लेकर आज तक ना जाने कितनों ने प्रेम के उपर क्या क्या लिखा, कितने ही शास्त्र लिख डाले। लैला मंजनु, श्रीपरहाद जैसे कितने ही प्रेम पुजारी जन्मे और मर गये। लेकिन प्रेम का रहस्य, पहेली को कोई भी ना समझ सका और नाही उसके उपर से पर्दा हटा पाये। इसका रहस्य समयानुसार गहराता ही गया। 
मत पूछो कि प्रेम क्या है? यह ना तो शब्दों में समाता है और ना ही शास्त्रों में लिखा जा सकता है। प्रेम के गाथा में कितने ही गीत लिखे गए। कितने ही शास्त्र लिखे गये। लेकिन प्रेम अनगाया और अनसुलझा ही रह गया। कितने बुद्धों ने जाना और जीया। कितनी मीराओं ने पहचाना और पीया। लेकिन प्रेम अनकहा ही रह गया है। जिसने जाना वही गूंगा हो गया। उसने सुदबुध ही खो दिया। जो इस रंग में रंग गया। वह पागल ही बन गया। वह कहना भी चाहे तो भी नहीं कह पा रहे है। प्रेम कि भावना इतनी बड़ी है कि उसके आगे सब शब्द छोटे पड़ जाते हैं। उसके आगे शब्द राई समान हो जाते है। बहुत छोटे पड़ जाते हैं। आज तक जिस ने भी प्रेम के बारे जो भी कहा है। वह पुर्णतया सत्य है ही नही। 
प्रेम को अनुभव करो। और अगर अनुभव ना कर सके तो फिर कहीं भी कभी भी अनुभव ना कर सकोगे। यह संसार तो मंदिर ही प्रेम का है। यह तो मयखाना ही प्रेम का है। यहां तो सभी शास्त्र प्रेम ही सिखा रहे है। प्रेम के ही गीत गा रहे है। प्रेम के ही व्याख्यान कर रहे है। प्रेम कोई शब्द और सिद्धांत नही है। और ना ही इसको तुम परिधी में बाध सकते हो। इस कि कोई सीमा नही है। कोई रंग रुप नही है। ना इसका जन्म होता है और ना ही इस की मृत्यु होती है। प्रेम एक बहुत ही गहरी बात है। इसे ना तो शब्दों में वर्णन कर सकते है और ना ही इसे दिखा सकते है। प्रेम प्रेमालाप का, समर्पण का, दो हृदयों का एक में ही आत्मसात हो जाने का, दो आत्मा एक में ही समाहित हो जाने का एक भाव है। प्रेम में होशियारी, चालाकी, अहंकार, अकड़, झूठ का कोई स्थान नहीं होता है। अगर प्रेम में अहंकार, अक्कड, झुठ है तो वहा प्रेम विकसित या अंकुरित होने से पहले ही खत्म हो जाता है। प्रेम त्याग, बलिदान और विश्वास के नीव पे टिका होता है। प्रेम में जितना झुक सकों उतना झुका जा सकता है। प्रेम में अहंकार का पूरी तरह से तिरोहित हो जाने से ही प्रेम का रंग और गहरा होते जाता है। प्रेम की खुशबु बिखरती है। प्रेम प्रकृति का वरदान है। प्रेम में मनुष्यों की बनाई गई कोई भी व्यवस्था लागु नही होती है। क्योंकि प्रेम परमात्मा का ही दूसरा रूप है।