अभिनय

अभिनय चोरी है या कला?


एक अमेरिकन अभिनेता का जीवन मैं पढ़ता था। कई बार संन्यासियों के जीवन थोथे होते हैं, उनमें कुछ भी नहीं होता। जिन्हें हम तथाकथित अच्छे आदमी कहते हैं, अक्सर उनके पास कोई जिंदगी नहीं होती। इसलिए अच्छे आदमी के आसपास कहानी लिखना बहुत मुश्किल है। उसके पास कोई जिंदगी नहीं होती। वह थोथा, समतल भूमि पर चलने वाला आदमी होता है, कोई उतार-चढ़ाव नहीं होते। बुरे आदमी के पास जिंदगी के गहरे अनुभवः अक्सर जिनको हम बुरा आदमी कहते हैं, उसमें एक जिंदगी होती है, और उसमें उतार-चढ़ाव होते हैं और अक्सर बुरे आदमी के पास जिंदगी के गहरे अनुभव होते हैं। अगर वह उनका उपयोग कर ले तो संत बन जाए। अच्छा आदमी कभी संत नहीं बन पाता। अच्छा आदमी बस अच्छा आदमी ही रह जाता है-सज्जन। सज्जन यानी मिडियाकर। जिसने कभी बुरे होने की भी हिम्मत नहीं की, वह कभी संत होने की भी सामथ्र्य  नहीं जुटा सकता। इस अभिनेता की मैं जिंदगी पढ़ रहा था। उसकी जिंदगी बड़े उतार-चढ़ाव की जिंदगी है। अंधेरे की, प्रकाशो की, पापो की, पुण्यों की- लेकिन उसका अंतिम निष्कर्ष देखकर मैं दंग रह गया। अंतिम उसने जो निष्कर्ष दिया है, पूरी जिंदगी में जिस बात ने उसे सबसे ज्यादा बेचैन किया है, वह आपको भी बेचैन कर सके।
अब मैं तय नहीं कर पाता हूं कि मैं कौन हूं? आखिरी बात उसने यह कही कि मेरी सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि मैंने इतने प्रकार के अभिनय किए, जिंदगी में मैंने इतनी एकिं्टग की, मैं इतने व्यक्ति बना कि अब मैं तय नहीं कर पाता हूं कि मैं कौन हूं? कभी वह शेक्सपियर के नाटक का कोई पात्र था, कभी वह किसी और कथा का कोई और पात्र था। कभी किसी कहानी में वह संत था, और कभी किसी कहानी में वह पापी था। जिंदगी में इतने पात्र बना वह कि आखिर में कहता है कि मुझे अब समझ नहीं पड़ता कि असली में मैं कौन हूं? इतने अभिनय करने पड़े, इतने चेहरे ओढने पड़े कि मेरा खुद का चेहरा क्या है, वह मुझे कुछ पक्का नहीं रहा है। दूसरी बड़ी गहरी बात उसने कही है कि जब भी मैं किसी पात्र का अभिनय करने मंच पर जाता हूं, तब एट-ईज होता हूं। क्योंकि वहां स्वयं होने की जरूरत नहीं होती है, एक अभिनय निभाना पड़ता है, तो मैं एकदम सुविधा में होता हूं, मैं निभा देता हूं। 'टु स्टेप इन ए रोल इज ईजीयर।' उसने लिखा है कि एक अभिनय में कदम रखना आसान है। 'बट टु स्टेप आउट ऑफ  इट बिकम्स कांप्लेक्स।' जैसे ही मैं मंच से उतरता हूं, उस अभिनय को छोड़कर, 'वैसे ही मेरी दिक्कत शुरू हो जाती हैं कि अब मै कौन हूं? तब तक तो तय होता है कि मैं कौन था, अब मैं कौन हूं? कहना चाहिए कि उसकी जिंदगी में अचैर्य का क्षण निकट आ गया है, लेकिन हमारी जिंदगी में हमें पता नहीं चलता। सच बात तो यह है कि कोई अभिनेता इतना अभिनय नहीं करता, जितना अभिनय हम सब करते हैं। मंच पर नहीं करते हैं, इससे ख्याल पैदा नहीं होता है। बचपन से लेकर मरने तक अभिनय की लंबी कहानी है। ऐसा एक आदमी भी नहीं है जो अभिनेता नहीं है। कुशल- अकुशल का फर्क हो सकता है, लेकिन अभिनेता नहीं है, कोई ऐसा आदमी नहीं है। और कोई आदमी अभिनेता न रह जाए तो उसके भीतर धर्म का जन्म हो जाता है।
चेहरों की चोरीः हम चेहरे चुराकर जीते हैं। हम शरीर को अपना मानते हैं, वह भी अपना नहीं है, और हम जिस व्यक्तित्व को अपना मानते हैं, वह भी हमारा नहीं है। वह सब उधार है। जिन चेहरों को हम अपने ऊपर लगाते हैं, जो मास्क, जो परसोना, जो मुखौटे लगाकर हम जीते हैं, वह भी हमारा चेहरा नहीं हैं। बड़ी से बड़ी जो आध्यात्मिक चोरी है, वह चेहरो की चोरी है, व्यक्तित्वो की चोरी है। हम सब बाहर से ही साधते हैं धर्म को। अधर्म होता है भीतर, धर्म होता है बाहर। चोरी होती है भीतर, अचैर्य होता है बाहर। परिग्रह होता है भीतर, अपरिग्रह होता है बाहर। हिंसा होती है भीतर, अहिंसा होती है बाहर। फिर चेहरे सध जाते हैं। इसलिए धार्मिक आदमी जिन्हें हम कहते हैं, उनसे ज्यादा चोर व्यक्तित्व खोजना बहुत मुश्किल है। चोर व्यक्तित्व का मतलब यह हुआ कि जो वे नहीं है, वे अपने माने चले जाते हैं, दिखाए चले जाते हैं। आध्यात्मिक अर्थो में चोरी का अर्थ है-जो आप नहीं हैं, उसे दिखाने की कोशिश, उसका दावा। हम सब वही कर रहे हैं, सुबह से सांझ तक हम दावे किये जाते हैं। 
मुस्कराहट आसुओं को छिपाने का इंतजाम हैः वह अमेरिकी अभिनेता ही अगर भूल गया हो कि मेरा ओरिजनल-फेस, मेरा अपना चेहरा क्या है, ऐसा नहीं है, हम भी भूल गए हैं। हम सब बहुत से चेहरे तैयार रखते है। जब जैसी जरूरत होती है, वैसा चेहरा लगा लेते हैं। और जो हम नहीं हैं, वह दिखाई पड़ने लगते हैं। किसी आदमी की मुस्कुराहट देखकर भूल में पड़ जाने की कोई जरूरत नहीं है, जरूरी नहीं है कि भीतर आंसू न हों। अक्सर तो ऐसा होता है कि मुस्कराहट आंसुओं को  छिपाने का इंतजाम ही होती है। किसी आदमी को प्रसन्न देखकर ऐसा मान लेने की कोई जरूरत नहीं है कि उसके भीतर प्रसन्नता का झरना बह रहा है, अक्सर तो वह उदासी को दबा लेने की व्यवस्था होती है। 
आदमी जैसा भीतर है, वैसा बाहर दिखाई नहीं पड़ रहा है, यह आध्यात्मिक चोरी है। और जो आदमी इस चोरी में पड़ेगा, उसने वस्तुएं तो नहीं चुराई, व्यक्तित्व चुरा लिए। और वस्तुओं की चोरी बहुत बड़ी चोरी नहीं है, व्यक्तित्वों की चोरी बहुत बड़ी चोरी है।
व्यक्तित्व चोर को किसी जेल में बंद करें:  ध्यान रहें, वस्तुओं के चोरों को तो हम जेलों में बंद कर देते हैं, व्यक्तित्वों के चारों के साथ हम क्या करें? जिन्होंने पसर्नेलिटीज चुराई हैं, उनके साथ क्या करें? उन्हें हम सम्मान देते हैं, उन्हें हम मंदिरों में, मस्जिदों में, गिरजाघरों में आहत करते हैं। ध्यान रहें, वस्तुओं के चोर ने कोई बहुत बड़ी चोरी की है। और वस्तुओं की चोरी बहुत जल्दी बंद हो जाएगी, क्योंकि वस्तुएं ज्यादा हो जाएंगी, चोरी बंद हो जाएगी, क्योंकि व्यक्तित्वों की चोरी जारी रहेगी। हम चुराते ही रहेंगे, दूसरे को ओढ़ते ही रहेंगे। इसे आप जरा सोचना कि आप स्वयं होने की हिम्मत जिंदगी में जुटा पाए या नहीं जुटा पाएं? अगर नहीं जुटा पाए तो आपके व्यक्तित्व की अनिवार्य आधारशिला चोरी की होगी। आपने कोई और बनने कोशिश तो नहीं की है? आपके चेतन-अचेतन में कहीं भी तो किसी और जैसा हो जाने का आग्रह तो नहीं है? अगर है, तो उस आग्रह को ठीक से समझ कर उससे मुक्त हो जाना जरूरी है। अन्यथा अचैर्य, नो-थेफ्ट की स्थिति नहीं पैदा हो पाएगी और यह चोरी ऐसी है कि इससे आपको कोई भी रोक नहीं सकता, क्योंकि व्यक्तित्व अदृश्य चोरियां हैं। धन चुराने जाएंगे, पकड़े जा सकते हैं। व्यक्तित्व चुराने जाएंगे, कौन पकड़ेगा? कैसे पकड़ेगा? कहां पकड़ेगा? और व्यक्तित्व की चोरी ऐसी है कि किसी से कुछ छीनते भी नहीं और आप चोर हो जाते हैं। व्यक्तित्व की चोरी आसान और सरल है। सुबह से उठकर देखना जरूरी है कि मैं कितनी बार दूसरा हो जाता हूं। हम व्यक्ति नहीं हो पाते व्यक्तित्वों के कारण। पसर्नेलिटीज के कारण पर्सन पैदा नहीं हो पाता।