पुरानी कथा है। एक युवा संन्यासी ने अपने गुरु को पूछा, यह संसार है क्या?
गुरु ने कहा, तू ऐसा कर, तू आज गांव में जा, फला-फलां द्वार पर भिक्षा मांग लेना। लौट कर जब आएगा तब संसार क्या है, बता दूंगा। उसने एक द्वार पर जाकर दस्तक दी। एक सुंदर युवती ने द्वार खोला। अति सुंदर युवती थी। युवक ने ऐसी सुंदर स्त्री कभी देखी न थी। उसका मन मोह गया। वह यह तो भूल ही गया कि गुरु के लिए भिक्षा मांगने आया था, गुरु भूखे बैठे होंगे। उसने तो युवती से विवाह का आग्रह कर लिया। उन दिनों ब्राह्मण किसी से विवाह का आग्रह करे तो कोई मना कर नहीं सकता था।
युवती ने कहा, मेरे पिता आते होंगे। वे खेत पर काम करने गए हैं। तब हो सकेगा। घर में आओ, विश्राम करो। वह घर में आ गया। वह विश्राम करने लगा। पिता आ गए, विवाह हो गया। वह गुरु की तो बात ही भूल गया। वह भिक्षा मांगने आया था, यह तो बात ही भूल गया। उसके बच्चे हो गए, तीन बच्चे हो गए। फिर गाव में बाढ़ आई, नदी पूर चढ़ी।' सारा गांव डूबने लगा। वह भी अपने तीन बच्चों को और अपनी पत्नी को लेकर भागने की कोशिश कर रहा है और नदी विकराल है और नदी किसी को छोड़ेगी नहीं।
सब डूब गए हैं, वह किसी तरह बचने की कोशिश कर रहा है। एक बच्चे को बचाने की कोशिश में दो बच्चे बह गए। पत्नी को बचाने की कोशिश में वह बच्चा भी बह गया। फिर अपने को बचाने की ही पड़ी तो पत्नी भी बह गई। किसी तरह खुद बच गया, किसी तरह लग गया किनारे, लेकिन इस बुरी तरह थक गया कि गिर पड़ा। बेहोश हो गया। जब आंख खुली तो गुरु सामने खड़े थे।
गुरु ने कहा, देखा संसार क्या होता है? ओर तब उसे याद आया कि वर्षों हो गए, तब मैं भिक्षा मांगने निकला था। गुरु ने कहा, कुछ भी नहीं हुआ है सिर्फ तेरी झपकी लग गई थी। जरा आंख खोल कर देख। वह भिक्षा मांगने भी नहीं गया था। सिर्फ झपकी लग गई थी। वह गुरु के सामने ही बैठा था। कुछ घटना घटी ही न थी। वह जो सुंदर युवती थी, सपना थी। वे जो बच्चे हुए, सपने थे। वह जो बाढ़ आई, सपना थी। वे जो वर्ष पर वर्ष बीते, सब सपना था। वह अभी गुरु के सामने ही बैठा था। झपकी खा गया था। दोपहर रही होगी, झपकी आ गई होगी। तुम यहां बैठे-बैठे कभी झपकी खा जाते हो। तुम जरा सोचो, तब एक क्षण की झपकी में यह पूरा सपना घट सकता है। क्यों? क्योंकि जागते का समय और सोने का समय एक ही नहीं है। एक क्षण में बडे से बड़ा सपना घट सकता है। कोई बाधा नहीं है।
तुमने कभी अनुभव भी किया होगा, अपनी टेबल पर बैठे झपकी खा गए। झपकी खाने के पहले ही घड़ी देखी थी दीवाल पर, बारह बजे थे। लंबा सपना देख लिया। सपने में वर्षों बीत गए। कैलेंडर के पन्ने फटते गए, उड़ते गए। आंख खुली, एक मिनट सरका है कांटा घड़ी पर और तुमने वर्षों का सपना देख लिया। अगर तुम अपना पूरा सपना कहना भी चाहो तो घंटों लग जाएं। मगर देख लिया। स्वपन का समय जागते के समय से अलग है। समय सापेक्ष है। अलबर्ट आइंस्टीन ने तो इस सदी में सिद्ध किया कि समय सापेक्ष है, पूरब में हम सदा से जानते रहे हैं, समय सापेक्ष है। जब तुम सुख में होते हो तो समय जल्दी जाता मालूम पड़ता है।
जब तुम दुख में होते हो तो समय धीमे - धीमे जाता मालूम पड़ता है। जब तुम परम आनंद में होते हो तो समय ऐसा निकल जाता है कि जैसे वर्षों क्षण में बीत गए। जब तुम महादुख में होते हो तो वर्षों की तो बात दूर, क्षण भी ऐसा लगता है कि वर्षों लग रहे हैं और बीत नहीं रहा, अटका है। फांसी लगी है। समय सापेक्ष है। दिन में एक, रात दूसरा। जागते में एक, सोते में दूसरा। और महाज्ञानी कहते हैं कि जब तुम्हारा परम जागरण घटेगा तो समय होता ही नहीं। कालातीत, समय के तुम बाहर हो जाते हो। सपना देखने के लिए नींद जरूरी है, संसार देखने के लिए अज्ञान जरूरी है। तो अज्ञान एक तरह की निद्रा है, एक तरह की मूर्च्छा है, जिसमें तुम्हें यह पता नहीं चलता कि तुम कौन हो। नींद का और क्या अर्थ होता है? नींद में तुम यही तो भूल जाते हो न कि तुम कौन हो? हिंदू कि मुसलमान, स्त्री कि पुरुष, बाप कि बेटे, गरीब कि अमीर, सुंदर कि कुरूप, पढ़े-लिखे कि गैर-पढ़े लिखे-यही तो भूल जाते हो न नींद में कि तुम कौन हो।
मूर्च्छा में भी और गहरे तल से हम भूल गए हैं कि हम कौन हैं। संसार के होने के लिए और कोई चीज जरूरी नहीं है, सिर्फ अज्ञान जरूरी है। जैसे स्वप्न के होने के लिए और कुछ जरूरी नहीं है, केवल निद्रा जरूरी है। सो गए कि सपना शुरू। और कोई साधन-सामग्री नहीं चाहिए सिर्फ नींद काफी है। नींद एकमात्र जरूरत है। फिर तुम यह नहीं कहते कि कहां है मंच? कहां हैं परदे? कहां है निर्देशक? कहां है अभिनेता? कैसे हो यह खेल सपने का? नहीं, एक चीज के पूरे होने से सब पूरा हो गया-नींद आ गई तो तुम ही बन गए अभिनेता, तुम ही बन गए निर्देशक, तुम्हीं ने लिख ली कथा, तुम्हीं ने लिख लिए गीत, तुम्हीं बन गए मंच, तुम्हीं फैल गए सब चीजों में। तुम्हीं बन गए दर्शक भी और सारा खेल रच डाला। एक चीज जरूरी थी- नींद।
ऐसे ही संसार के लिए भी एक चीज जरूरी है-मूर्च्छा, बेहोशी। बस, फिर रो सार फैला। फिर किसी की भी आवश्यकता नहीं है। तो तुम यह मत सोचना कि बाजार को छोड़ कर अगर हिमालय चले गए तो संसार छूट जाएगा, क्योंकि संसार के होने के लिए एक ही चीज जरूरी है मूर्च्छा। गांव में बैठे-बैठे मूर्च्छा की झपकी आ गई, झोंका आ गया, संसार फैल गया। वहीं राम विवाह रचा लोगे, वहीं बच्चे पैदा हो जाएंगे। इसलिए प्रश्न कर्म को छोड़ कर भाग जाने का नहीं है, कर्म-संन्यास का नहीं है। प्रश्न है, अज्ञान से मुक्त हो जाने का और अज्ञान से तुम यह मत समझना कि सूचनाओं की, जानकारी की कमी। नहीं, अज्ञान से अर्थ है आत्मबोध का अभाव। तुम कितनी ही सूचनाएं इकट्ठी कर लो, कितना ही ज्ञान इकट्ठा कर लो, उससे ज्ञानी न होओगे जब तक कि भीतर का दीया न जले, जब तक कि प्रभा भीतर की प्रकट न हो।
तब तक तुम बाहर से कितना ही इकट्ठा करो, उस कचरे से कुछ भी न होगा। पंडित बनोगे, प्रज्ञावान न बनोगे। विद्वान हो जाओगे, लेकिन विद्वान हो जाना धोखा है। विद्वान हो जाना ज्ञानी होने का धोखा है। बुद्धिमानी नहीं है विद्वान हो जाना। दूसरों को तो धोखा दिया ही दिया, अपने को भी धोखा दे लिया। बुद्ध से कम हुए बिना न चलेगा। जागे मन, हो प्रबुद्ध, तो ही कुछ गति है। न करते हुए भी अज्ञानी उलझा रहता है। विचार में ही करता रहता है। बैठ जाए गुफा में तो भी सोचेगा बाजार की। ध्यान के लिए बैठे तो भी न मालूम कहां-कहां मन विचरेगा। संकल्प-विकल्प उठेंगे, ऐसा कर लूं ऐसा न करूं। कल्पना में करने लगेगा। कल्पना में ही हत्या कर देगा, हिंसा कर देगा, चोरी कर लेगा, बेईमानी कर लेगा। हाथ भी नहीं हिला, पलक भी नहीं हिली और भीतर सब हो जाएगा।