दूसरा जन्म

दूसरा जन्म


एक मित्र ने पूछा है, गीता में कहा है कि जो मनुष्य मरते समय जैसी ही चाह करे, वैसा ही वह दूसरा जन्म पा सकता है।
तो यदि एक मनुष्य उसका सारा जीवन पाप करने में ही गंवा दिया हो और मरते समय दूसरे जन्म में महावीर और बुद्ध जैसा बनने की चाह करे, तो क्या वह आदमी दूसरे जन्म में महावीर और बुद्ध जैसा बन सकता है?
निश्चित ही, मरते क्षण की अंतिम चाह दूसरे जीवन की प्रथम घटना बन जाती है। जो इस जीवन में अंतिम है, वह दूसरे जीवन में प्रथम बन जाता है।
इसे ऐसा समझें। रात आप जब सोते हैं, तो जो रात सोते समय आपका आखिरी विचार होता है, वह सुबह जागते समय आपका पहला विचार बन जाता है। इसे आप प्रयोग करके जान सकते हैं। रात आखिरी विचार, जब आपकी नींद उतर रही हो, जो आपके चित्त पर हो, उसे खयाल कर लें। तो सुबह आपको जैसे ही पता लगेगा कि मैं जाग गया हूं वही विचार पहला विचार होगा।
मृत्यु महानिद्रा है, बड़ी नींद है। इसी शरीर में नहीं जागते हैं, फिर दूसरे शरीर में जागते हैं। लेकिन इस जीवन का जो अंतिम विचार, अंतिम वासना है, वही दूसरे जीवन का प्रथम विचार और प्रथम वासना बन जाती है।
इसलिए गीता ठीक कहती है कि अंतिम क्षण में जो विचार होगा, जो वासना होगी, वही दूसरे जीवन का कारण बन जाएगी।
लेकिन अगर आपने जीवनभर पाप किया है, तो अंतिम क्षण मेँ आप बुद्ध होने का विचार कर नहीं सकते। वह असंभव है। अंतिम विचार तो आपके पूरे जीवन का निचोड़ होगा। अंतिम विचार में सुविधा नहीं है आपके हाथ में कि आप कोई भी विचार कर लें। मरते क्षण में आप धोखा नहीं दे सकते। समय भी नहीं है धोखा देने के लिए। मरते क्षण में तो आपका पूरा जीवन निचुड़कर आपकी वासना बनता है। आप वासना कर नहीं सकते मरते क्षण में।
वह आपके हाथ में उपाय नहीं है कि आप मरते वक्त बुद्ध बनने का विचार कर लें। बुद्ध बनने का विचार तो तभी आ सकता है जब जीवनभर बुद्ध बनने की चेष्टा रही हो। क्योंकि मरते क्षण में आपका जीवन पूरा का पूरा निचुड़कर आखिरी वासना बन जाता है। वह बीज है। उसी बीज से फिर नए जन्म की शुरुआत होगी।
इसे ऐसा समझें। एक बीज हम बोते हैं, वृक्ष बनता है। फूल खिलते हैं। फूल में फिर बीज लगते हैं। उस बीज में उसी वृक्ष का प्राण फिर से समाविष्ट हो जाता है। वह बीज नए वृक्ष का जन्म बनेगा।
तो आपने जीवनभर जो किया है, जो सोचा है, जिस भांति आप रहे हैं, वह सब निचुड़कर आपकी अंतिम वासना का बीज बन जाता है। वह आपके हाथ में नहीं है।
जिस आदमी ने जीवनभर धन की चिंता की हो, मरते वक्त वह धन की ही चिंता करेगा। थोड़ा समझें, इससे विपरीत असंभव है। क्योंकि जिसके मन पर धन का विचार ही प्रभावी रहा हो, मरते समय जीवनभर का अनुभव, जीवनभर की कल्पना, जीवनभर की योजना, जीवनभर के स्वप्न, वे सब धक्का देंगे कि वह धन के संबंध में अंतिम विचार कर ले। इसलिए धन को पकड़ने वाला अंतिम समय में धन को ही पकड़े हुए मरेगा।
लोककथाएं हैं कि अगर कृपण मर जाता है, तो अपनी तिजोड़ी पर सांप बनकर बैठ जाता है। या अपने खजाने पर सांप बनकर बैठ जाता है। वे कथाएं सार्थक हैं। वे इस बात की खबर हैं कि अंतिम क्षण में आप अपने जीवन की पूरी की पूरी निचुड़ी हुई अवस्था को बीज बना लेंगें।
तो गीता ठीक कहती है कि जो अंतिम क्षण में विचार होगा, वही आपके नए जन्म की शुरुआत होगी। लेकिन आप यह मत सोचना ग्रंथियों का उपयोग होता है। जब आप क्रोध से भर जाते हैं, तो आपने खयाल किया, क्रोध से भरा हुआ आदमी अपने से ताकतवर आदमी को उठाकर फेंक देता है। उसकी ग्रंथियां जहर छोड़ देती हैं, जिनसे वह पागल हो जाता है। 
आदमी जो भी भूलें करता है, वह बेहोशी में करता है। मौत के क्षण में आपके शरीर की सारी विषाक्त ग्रंथियां पूरा विष छोड़ देती हैं। आपकी पूरी चेतना धुएं से भर जाती है। आपको कुछ होश नहीं रहता। जब आपका शरीर आत्मा से अलग होता है, तो आप उतने ही बेहोश होते हैं, जितना सर्जरी में कोई मरीज बेहोश होता है। उससे ज्यादा।
मृत्यु के पास अपना एनेस्थेसिया है। इसलिए आप होश में मर नहीं सकते, आप बेहोशी में मरेंगे। इसी कारण तो आपको दूसरे जन्म में याद नहीं रह जाता पिछला जन्म। क्योंकि जो बेहोशी में घटा है, उसकी याददाश्त नहीं हो सकती।