सवाल

बारीक है सवाल, थोड़ा समझना पड़े, नाजुक है


थोड़ा ध्यान करना जब भक्ति तक में अहंकार बच जाता है तो अद्वैत में तो मिट ही न सकेगा। जब आंसू भी उसे नहीं बहा सकते तो रूखे-सूखे मार्ग पर तो बड़ा अकड़कर खड़ा हो जाएगा। जब आंसू भी उसे पिघला नहीं सकते, और आंसुओं से भी वह अपने को भर लेता है, तो जहां आंसू नहीं हैं वहां तो मिटने का उपाय ही न रह जाएगा। समझें अहंकार का आंसुओं से विरोध है। इसलिए तो हम पुरुष से कहते हैं, रो मत। क्या स्त्री जैसा व्यवहार कर रहे हो! पुरुष को हम अहंकारी बनाते हैं। छोटा बच्चा भी रोने लगता है तो कहते हैं, चुप! लड़का है या लड़की? पुरुषों की दुनिया है। अब तक पुरुष काबू करते रहे हैं दुनिया पर, तो उन्होंने अपने लिए अहंकार बचा लिया है। पुरुष होने का अर्थ है रोना मत। यह अकड़ है। स्त्रियां रोती हैं। कमजोर रोते हैं, शक्तिशाली कहीं रोते हैं! अहंकार का आंसुओं से कुछ विरोध है। तुम अगर सिकंदर को रोते देखो तो तुम उसको बहादुर न कह सकोगे। नेपोलियन को अगर तुम रोते देख लो तो तुम कहोगे अरे, नेपोलियन, और रो रहे हो! यह तो कायरों की बात है, कमजोरों की बात है। यह तो स्त्रैण चित्त का लक्षण है।
अहंकार का आंसुओं से विरोध है। तो जब आंसू भी अहंकार को नहीं मिटा पाते तो ऐसा मार्ग जहां आंसुओं की कोई जगह नहीं है, वह तो मिटा ही न पाएगा। वहां तो अहंकार और अकड़ जाएगा। भक्तों में तो कभी-कभी तुम्हें विनम्रता मिल जाएगी, अद्वैतवादियों में तुम्हें कभी विनम्रता नहीं मिलेगी। मुश्किल है, बहुत मुश्किल है। बड़ी अकड़ मिलेगी। आंसू ही नहीं हैं।
थोड़ा सोचो हरा वृक्ष होता है तो झुक सकता है सूखा वृक्ष होता है तो झुक नहीं सकता। विनम्रता तो झुकने की कला है। अगर आंसुओं ने थोड़ी हरियाली रखी है, तो झुक सकोगे। अगर आंसू बिल्कुल सूख गए और सूखे दरख्त हो गए तुम, तो झुकना असंभव है। टूट भला जाओ, झुक न सकोगे। अहंकारी वही तो कहते हैं कि टूट जाएंगे, मगर झुकेंगे नहीं मिट जाएंगे, मगर अकड़े रहेंगे। अद्वैत रूखा-सूखा रास्ता है-तर्क का, बुद्धि का, विचार का। अगर भाव, प्रेम और भक्ति के रास्ते पर भी तुम पाते हो कि अहंकार इतना कुशल है कि अपने को भर लेता है, तो फिर अद्वैत के रास्ते पर तो बहुत भर लेगा। क्योंकि भक्ति की तो पहली शर्त ही यही है समर्पण। भक्ति तो पहली ही चोट में अहंकार को मिटाने की चेष्टा करती है, अद्वैत तो अंतिम चोट में मिटाएगा। तुम पूरा रास्ता तय कर सकते हो अद्वैत का अहंकार के साथ। आखिर में अहंकार गिरेगा। भक्ति तो पहले ही चरण पर कहती है अहंकार छोड़ो तो ही प्रवेश है।
वैष्णव भक्तों की एक कथा है कि एक भक्त वृंदावन की यात्रा को आया-रोता, गीत गाता, अश्रु-विभोर, लेकिन मंदिर पर ही उसे रोक दिया गया। द्वार पर पहरेदार ने कहा, ष्रुको! अकेले भीतर जा सकते हो। लेकिन यह गठरी जो साथ ले आए हो, इसे बाहर छोड़ दो। उसने चैंककर चारों तरफ देखा, कोई गठरी भी उसके पास नहीं है। वह कहने लगा, कैसी गठरी, कौन सी गठरी? मैं तो बिलकुल खाली हाथ आया हूं। उस द्वारपाल ने कहा, भीतर देखो, बाहर मत। गठरी भीतर है, गांठ भीतर है। जब तक तुम्हें यह ख्याल है कि मैं हूं, तब तक, तब तक भक्ति के मंदिर में प्रवेश नहीं हो सकता। भक्ति की तो पहली शर्त है तू है, मैं नहीं हूं। भक्ति का प्रारंभ है तू है, मैं नहीं। और भक्ति का अंत है कि न मैं हूं, न तू है।
अद्वैत की तो बहुत गहरी खोज यही है कि मैं हूं, तू नहीं और अंतिम अनुभव है न मैं हूं, न तू। इसलिए तो अद्वैत कहता है अहं बह्मास्मि! अनलहक! मैं हूं। मैं ब्रह्म हूं। मैं सत्य हूं। अद्वैत के रास्ते पर तो वे ही लोग सफल हो सकते हैं, जो अहंकार के प्रति बहुत सजग हो सकें। क्योंकि वहां आंसू भी साथ देने को न होंगे, सिर्फ सजगता ही साथ देगी। वहां प्रेम भी झुकाने को न होगा, वहां तो बोधपूर्वक ही झुकोगे तो ही झुकोगे। तो, अद्वैत तो बहुत ही समझपूर्वक चलने का मार्ग है। सौ चलेंगे,एक मुश्किल से पहुंच पाएगा। भक्ति में नासमझ भी चल सकता है, क्योंकि भक्ति कहती है, सिर्फ गठरी छोड़ दो। कोई तर्क का जाल नहीं है, कोई विचार का सवाल नहीं है। प्रेम में डूब जाओ! अज्ञानी भी चल सकता है भक्ति के मार्ग पर। तो जिस मित्र ने पूछा है कि आंसू बहने लगते हैं तो एक अहंकार पकड़ता है भीतर कि अहो, धन्यभाग, कि मैं कैसे भक्ति के रस में डूब रहा हूं! ठीक पूछा है। ऐसा होगा, स्वाभाविक है। उससे घबड़ाओ मत। उस अहोभाव को भी परमात्मा के चरणों पर समर्पित कर दो। तत्क्षण कहो कि खूब, फिर उलझाया, इसे भी सम्हाल! अहोभाव मेरा क्या, तेरा प्रसाद है! अब मुझे और धोखा न दे! अब मुझे और खेल न खिला! जैसे भी यह अहंकार बने, उसे तत्क्षण जैसे ही याद आ जाए,तत्क्षण परमात्मा के चरणों में रख दो। जल्दी ही तुम पाओगे अगर तुम रखते ही गए, अहंकार के बनने का कारण ही खतम हो गया। अहंकार संगृहीत हो तो ही निर्मित होता है। पल-पल उसे चढ़ाते जाओ परमात्मा के चरणों में। और सब फूल चढ़ाए, बेकार धूप-दीप बाली, बेकार आरती उतारी, व्यर्थ-बस अहंकार प्रतिपल बनता है, उसे तुम चढ़ाते जाओ। वही तुम्हारे भीतर उगने वाला फूल है, उसे चढ़ाते जाओ। जल्दी ही तुम पाओगे, उसका उगना बंद हो गया। क्यों? उसका संगृहीत होना जरूरी है। और आंसू बड़े सहयोगी हैं। होश रखना पड़ेगा। थोड़ा जागरूक रहना पड़ेगा। नहीं तो अहंकार बड़ा सूक्ष्म है और बड़ा कुशल है,बड़ा चालाक है। सावधान रहना पड़ेगा। सावधानी तो सभी मार्गों पर जरूरी है भक्ति के मार्ग पर सबसे कम जरूरी है, लेकिन जरूरी तो है ही। अद्वैत के मार्ग पर बहुत ज्यादा जरूरी है। न्यूनतम सावधानी से भी काम चल सकता है भक्ति के मार्ग पर, लेकिन बिलकुल बिना सावधानी के काम नहीं चल सकता है।
घबड़ाओ मत। जो हो रहा है, बिल्कुल स्वाभाविक है, सभी को होता है। यात्रा के प्रारंभ में यह अड़चन सभी को आती है। अहंकार की आदत है कि जो भी मिल जाए उसी का सहारा खोजकर अपने को भर लेता है। धन कमाओ तो कहता है, देखो कितना धन कमा लिया! ज्ञान इकट्ठा कर लो तो कहता है, कितना ज्ञान पा लिया! त्याग करो तो कहता है, देखो कितना त्याग कर दिया! ध्यान करो तो कहता है, देखो कितना ध्यान कर लिया! मेरे जैसा ध्यानी कोई भी नहीं है! आंसू बहाओ तो गिनती कर लेता है, मैंने कितने आंसू बहाए, दूसरों ने कितने बहाए। मेरा नंबर एक है,बाकी नंबर दो हैं! इस अहंकार की तरकीब के प्रति होश रखना भर जरूरी है, कुछ और करने की जरूरत नहीं है। उसे भी चढ़ा दो परमात्मा को। भक्त को एक सुविधा है, परमात्मा भी है, उसके चरणों में तुम चढ़ा सकते हो। भक्त को एक सुविधा है कि अहंकार के विपरीत वह परमात्मा का सहारा ले सकता है। अद्वैतवादी को वह सुविधा भी नहीं है। वह बिल्कुल अकेला है, कोई संगी-साथी नहीं है। भक्त अकेला नहीं है। इसलिए अगर भक्ति के मार्ग पर भी तुम्हें अड़चन आ रही है तो यह मत सोचना कि अद्वैत का मार्ग तुम्हें आसान होगाय और भी कठिन होगा। इस भूल में मत पड़ना। अहंकार की एक ही घबड़ाहट है, और वह घबड़ाहट यह है कि कहीं मर न जाऊं। अहंकार मरेगा ही। वह कोई शाश्वत सत्य नहीं है, वह क्षणभंगुर है। तुम कभी न मरोगे, तुम्हारा अहंकार तो मरेगा ही। जितनी जल्दी तुम यह बात समझ लो, उतना ही भला है। उम्र फानी है तो फिर मौत से डरना कैसा एक बात तो पक्की है कि मौत निश्चित है और जिंदगी आज है कल नहीं होगी--हवा की लहर है, आई और गई, सदा टिकनेवाली नहीं है। उम्र फानी है तो फिर मौत से डरना कैसा इक-न-इक रोज यह हंगामा हुआ रखा है किसी भी दिन यह घटना घटनेवाली है। मौत होगी ही। इक-न-इक रोज यह हंगामा हुआ रखा है तो जो होने ही वाला है, उसे स्वीकार कर लो। लड़ो मत, बहो। यह लड़ाई छोड़ दो कि मैं बचूं। स्वीकार ही कर लो कि मैं नहीं हूं। जो मौत करेगी, भक्त उसे आज ही कर लेता है। जो मौत में जबर्दस्ती किया जाएगा, भक्त उसे स्वेच्छा से कर लेता है। वह कहता है,  मिटना ही है वह मिट ही गया। आज मिटा, कल मिटा--क्या फर्क पड़ता है! मैं खुद ही उसे छोड़ देता हूं। अपनी मौत को स्वीकार कर लो तो तुम अमृत को उपलब्ध हो जाओगे। इधर तुमने मौत को स्वीकार किया कि उधर तुम पाओगे,तुम्हारे भीतर कोई छिपा है--तुमसे ज्यादा गहरा, तुमसे ज्यादा ऊंचा, तुमसे ज्यादा बड़ा। तुम मिटे कि उस ऊंचाई और गहराई और उस विराट का पता चलना शुरू हो जाता है।


तुमने तिनके का सहारा ले रखा है। तिनके के सहारे के कारण तुम भी छोटे हो गए हो। तुमने गलत संग पकड़ लिया है। गलत से तादात्म्य हो गया है। मौत को स्वीकार कर लो। मौत को स्वीकार करते ही अहंकार नहीं बचता। जैसे ही तुमने सोचा, समझा कि मौत निश्चित है--होगी ही आज हो, कल हो, परसों हो--होगी हीय इससे बचने का कोई उपाय नहीं है कोई कभी बच नहीं पाया। भाग-भागकर कहां जाओगे? भाग-भागकर सभी उसी में पहुंच जाते हैं, मौत के ही मुंह में पहुंच जाते हैं। अंगीकार कर लो। उस अंगीकार में ही अहंकार मर जाता है। मुझे अहसास कम था वर्ना दौरे जिंदगानी में मेरी हर सांस के हमराह मुझमें इंकिलाब आया मुझे होश कम था, मुझे अहसास कम था। होश कम था, सावधानी नहीं थी, जागरूकता नहीं थी। ...वर्ना दौरे जिंदगानी में! वर्ना जिंदगी भर, मेरी हर सांस के हम राह मुझमें इंकिलाब आया मेरी हर सांस के साथ क्रांति की संभावना आती थी और मैं चूकता गया। हर सांस के साथ क्रांति घट सकती थी, अहंकार छूट सकता था और परमात्मा के जगत में प्रवेश हो सकता था--लेकिन होश कम था। इस होश को थोड़ा जगाओ। वह इंकलाब, वह क्रांति तुम्हारी भी हर श्वास के साथ आती है, तुम चूकते चले जाते हो। अहंकार को जब तक तुम पकड़े हो, चूकते ही चले जाओगे। जिस दिन छोड़ा अहंकार को, उसी क्षण क्रांति घट जाती है। उसी क्रांति की तलाश है। उस क्रांति के बिना कोई तृप्ति न होगी। उस क्रांति के बिना तुम थरथराते ही रहोगे भय में, घबड़ाते ही रहोगे चिंताओं में, डरते ही रहोगे। मौत जब तक होने वाली है, तब तक कोई निश्चिंत हो भी कैसे सकता है! अगर तुमने स्वीकार कर लिया तो मौत हो ही गई, फिर चिंता का कोई कारण नहीं। इसे थोड़ा करके देखो। यह बात करने की है। यह बात सोचने भर की नहीं है। इसे करोगे तो ही इसका स्वाद मिलेगा।