'ओशोवाणी'


जो भारतीय मित्र यहां मेरे पास हैं, वे मेरे पास जरूर हैं, लेकिन मेरी बातें कितनी समझ पाते हैं, यह जरा कहना कठिन है। उनमें से पचास प्रतिशत भी समझ लेते हैं तो चमत्कार है मैं जानता हूंउन पचास प्रतिशत मित्रों को जो यहां हैं। उन्हें यहां नहीं होना चाहिए। यहां होने का उनका कोई कारण नहीं है। लेकिन मैं जिस तरह के काम में लगा हूं, यह काम ऐसा ही है जैसे कोई कुआंखोदता है। जब तुम कुआं खोदते हो तो पहले तो कूड़ा-करकट हाथ लगता है। स्वभावतः ऊपर तो जमाने भर का कूड़ा-करकट जमीन पर एकत्र होता है। जब खुदाई करोगे तो कूड़ा-करकट पहले हाथ लगेगा। फिर और खोदोगे तो पत्थर-कंकड़ सूखी मिट्टी हाथ लगेगीफिर और खोदोगे तो गीली मिट्टी हाथ लगेगी। फिर और खोदते ही चले जाओगे तो, जलधार हाथ लगेगीफिर खोदोगे तो, स्वच्छ धार के झरनेमिलेंगे। तो शुरू-शुरू में जब मैंने कुआं खोदना शुरू किया तो बहुत साकूड़ा-करकट भी आ गया। उसे हटाने की चेष्टा मैं लगा हूंबड़ी मात्रा में तो हट गया है; मगर फिर भी कुछ लोग अटके रह गये हैं। वे त्रिशंकु की भांति हो गये हैंवे मेरे साथ नहीं हैं। वे भी जानते हैं, मैं भी जानता हूंवे मेरे साथ हो सकते नहीं हैं, क्योंकि वे अपनी धारणाएं छोड़ने को राजी नहीं हैं।


मैं तो चाहंगा कि ये मित्र धीरे-धीरे विदा हों यहां से। जिनका कोई मूल्य नहीं है