‘होनी होय सो होय’ तो क्या कुछ न करें? सब उसी पर छोड़ दें?

रामदास! कुछ न करें, यह भी करना होगा। यह भी एक ढंग का करना है..कुछ न करें, कि हम कुछ न करेंगे। यह नकारात्मक कृत्य है, लेकिन है कृत्य ही। सब उसी पर छोड़ दें..यह छोड़ना भी कृत्य है। कौन छोड़ रहा है? और छोड़ना क्या है? क्या छोड़ना क्रिया नहीं है?
अगर तुम बात को ठीक से समझे..'होनी होय सो होय'..तो फिर न तो कुछ करने को बचता है, न न करने को बचता है न तो कुछ पकड़ने को बचता है, न कुछ छोड़ने को बचता है। जो हो रहा है, ठीक हो रहा है हम केवल दर्शक रह जाते हैं। न पकड़ना है, न छोड़ना है न करना है, न करना है। जो हो रहा है, हो ही रहा है। हम सिर्फ दर्शक रह गए, द्रष्टा रह गए..देखेंगे और देखने से इंच भर इधर-उधर नहीं जाएंगे, कर्ता नहीं बनेंगे।
नहीं तो तुम भूल में पड़ोगे।
अब तुमने सुना कि कबीर कहते हैं 'होनी होय सो होय' और मैं कबीर के समर्थन में हूं कि जो होना है सो होगा। तुम क्यों फिक्र लेते हो? तुम क्यों चिंता में पड़ते हो? तुम तो द्रष्टामात्र हो। तुम्हें चिंता लेने का, संताप करने का कोई भी कारण नहीं। तुम तो देखो। दुखांत होगा नाटक तो ठीक और सुखांत होगा तो ठीक। तुम्हें क्या पड़ी है? लेकिन तब तुम्हारे सामने सवाल उठा..'तो क्या कुछ न करें?' करने से तुम न छूटोगे। अब तुमने दूसरा निर्णय लिया..'तो अच्छी बात है। होनी होय सो होय! तब हम बैठेंगे, कुछ न करेंगे।' मगर वह बैठना भी कृत्य हो गया। जबरदस्ती बैठ जाओगे गुफा में जाकर, बार-बार देखोगे बाहर गुफा के कि अभी तक कुछ हो नहीं रहा है! होनी होय सो होय, मगर हो कुछ भी नहीं रहा है और हम बैठे हैं इतनी देर से! तुम्हारे बैठने में तुम्हारा अहंकार ही रहेगा। यह कुछ बोध नहीं है। यह कोई समझ नहीं है। यह कोई प्रज्ञा से उठी क्रांति नहीं है।
अब तुम कहते हो 'सब क्या उसी पर छोड़ दें?'
तो क्या कुछ बचा लेने का इरादा है कि थोड़ा-बहुत तो बचा लें! मीठा-मीठा गप, कड़वा-कड़वा थू! कि बाकी तू सम्हाल। कि जब बुरा हो जाए तो कहेंगे 'होनी होय सो होय' और जब भला हो जाए तो झंडा लेकर निकल पड़ेंगे कि झंडा ऊंचा रहे हमारा! देखो यह हमने ही किया!
अब तुम पूछ रहे हो 'तो क्या सब उसी पर छोड़ दें?'
मगर छोड़ोगे तुम! तो छोड़ना कृत्य हो गया। छोड़ने वाला है कौन? सब उस पर छूटा ही हुआ है। पागल हो तुम, जो सोचते हो कि हम पकड़े हैं। सब उसी का है, सब उस पर ही छूटा हुआ है। और तुम कुछ कर रहे हो, इस भ्रांति में हो। जो हो रहा है वही हो रहा है तुम्हारे किए से कुछ भी नहीं हो रहा है। तुम नाहक ही हाथ-पैर न मारो। भोगी भी हाथ-पैर मारते हैं, त्यागी भी हाथ-पैर मारते हैं। संन्यासी मैं उसको कहता हूं जो यह समझ लेता है अपने हाथ-पैर मारने की बात ही नहीं। हम हैं ही नहीं, वही है! हम उसके अंग-मात्र हैं। जैसे पानी की लहर..सागर की लहर..अलग तो हो नहीं सकती सागर से। सागर ही उसमें नाचता है तो नाचती है। सागर ही सो जाता है तो सो जाती है। यह बोध की बात है। मैं तुमसे जो कह रहा हूं, यह करने की कम, समझने की बात है।
बस समझ लिया कि सब हो गया। तुम और परमात्मा में भेद नहीं है। तुमने मान लिया है कि मैं अलग हूं तो झंझटें आ रही हैं। अब अलग मान लिया है तो कुछ करूंगा। और फिर अगर किसी ने कहा कि तुम्हारे करने से असफलता हाथ लगती है, दुख हाथ लगता है, तो तुम कहते हो अच्छी बात है, तो नहीं करेंगे! मगर करने की भाषा नहीं बदलती, वही की वही भाषा जारी रहती है।
तुम अपनी भाषा में जरा झांक कर देखो।
तुम छोड़ोगे क्या? तुम पकड़ोगे क्या? तुम हो कहां? न पकड़ना है, न छोड़ना है..सिर्फ जागना है। और मजा यह है पकड़ो तो तुम बने रहोगे, छोड़ो तो तुम बने रहोगे जागे कि तुम मिटे। या तुम मिट जाओ तो जाग जाओ। मिटना और जागना एक ही घटना के दो पहलू हैं। जागने में अहंकार नहीं बचता। अहंकार अंधकार है, कैसे बचेगा? जागना प्रकाश है।
इसलिए रामदास, कबीर जो कहते हैं या मैं जो कहता हूं..'होनी होय सो होय'..उसका अर्थ समझो। उसका यह अर्थ नहीं है कि तुम्हें कुछ नहीं करना है, सब उसी पर छोड़ देना है। उसका यह अर्थ नहीं है कि आलस्य में पड़ जाओ, कि अकर्मण्य होकर बैठ जाओ। यह पूरा देश ऐसे ही आलसी हुआ, ऐसे ही अकर्मण्य हुआ। नहीं जो कर रहे हो करो, लेकिन जानो भलीभांतिय कर रहा है वही हमारे द्वारा! उसके हाथ हजार हैं। हम सब उसके हाथ। जो हो रहा है उसके द्वारा हो रहा है। इसलिए तुम्हें चिंता नहीं पकड़ेगी। हारोगे तो उसकी हार, जीते तो उसकी जीत है। कैसी चिंता? कैसी अस्मिता? न अकड़ आएगी, न विषाद आएगा। तुम जीवन से ऐसे गुजर जाओगे..अछूते!
कबीर ने कहा है ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया, ऐसे जतन से ओढ़ी कबीरा। काश, तुम भी ऐसा ही एक दिन कह सको अपने अंतिम क्षणों में कि जीवन की चादर को जैसा का तैसा रख दिया..इतने जतन से ओढ़ कर, इतने होश से ओढ़ कर! जरा भी दाग न पड़ा! तो बस, तुम्हारे जीवन की पूर्णता आ गई, तुम्हारे जीवन में फूल लगे, तुम्हारे जीवन में सुगंध उड़ी, तुम सार्थक हुए! अन्यथा लोग ऐसे ही धक्के खाते हैं और मर जाते हैं। बहुत कम लोग हैं जिनके जीवन में फूल लगते हैं, कमल खिलते हैं। और सब के जीवन में फूल लग सकते हैं! और सबके जीवन में कमल खिल सकते हैं। सब का जन्मसिद्ध अधिकार है।