बूढ़ी नानी

बूढ़ी नानी


बचपन में मैंने एक कहानी सुनी है, आपने भी सुनी होगी। एक बूढ़ी औरत, नानी है। बच्चे उसे घर में घेर लेते हैं और कहानी पूछते हैं। वह थक गई है, उसकी सब कहानियां चुक गई हैं। लेकिन बच्चे हैं कि रोज पूछे ही चले जाते हैं। वे फिर-फिर कहते हैं रोज रात, कहानी! और वह बूढ़ी थक गई है, उसकी सब कहानियां चुक गई हैं। अब वह क्या करे और क्या न करे! और बच्चे हैं कि पीछे पड़े हैं।
तो फिर उसने एक कहानी ईजाद की। ठीक वैसी ही जैसी परमात्मा की कहानी है। उसने कहानी ईजाद की। उसने कहा, एक वृक्ष पर अनंत पक्षी बैठे हैं। बच्चे खुश हुए, क्योंकि अनंत पक्षी हैं, कथा अनंत चल सकेगी। उसने कहा, एक शिकारी है, जिसके पास अनंत बाण हैं। उसने एक तीर छोड़ा। तीर के लगते ही वृक्ष पर, एक पक्षी उड़ा। बच्चों ने पूछा, फिर? उस बूढ़ी ने कहा, उस शिकारी ने दूसरा तीर छोड़ा, फिर एक पक्षी उड़ा। बच्चों ने पूछा, फिर! उस बूढ़ी ने कहा, फिर शिकारी ने एक तीर छोड़ा। फिर एक पक्षी उड़ा-फुर्र। बच्चों ने पूछा, फिर! फिर यह कहानी चलने लगी, बस ऐसे ही चलने लगी। फिर बच्चे थक गए और उन्होंने कहा, कुछ और नहीं होगा? उस बूढ़ी स्त्री ने कहा कि अब मैं थक गई हूं, अब और कहानी नहीं। अब यह एक कहानी काफी रहेगी। अब तुम रोज पूछना। फिर उसने एक तीर छोड़ा-अनंत हैं तीर, अनंत हैं पक्षी।
यह जो हमारे क्यों का जगत है, वह ठीक बच्चों जैसा है, जो पूछ रहे हैं, क्यों? क्यों का सवाल चाइल्डिश है, यद्यपि बहुत बुद्धिमान लोग पूछते हुए मालूम पड़ते हैं। असल में बुद्धिमानों से ज्यादा बाल-बुद्धि के लोग खोजने मुश्किल हैं। क्यों का सवाल एकदम बचकाना है। लेकिन बड़ा कीमती मालूम पड़ता है। क्योंकि दुनिया में जिनको हम बुद्धिमान कहते हैं, वे यही पूछते रहे हैं। चाहे वे यूनान के दार्शनिक हों, चाहे भारत के हों और चाहे चीन के हों, वे यह क्यों ही पूछते रहे हैं। और फिर क्यों के उत्तर खोजते रहे हैं। किसी उत्तर ने किसी को तृप्ति नहीं दी। किसी उत्तर से हल नहीं हुआ। क्योंकि हर उत्तर के बाद पूछने वाले ने पूछा, क्यों? फिर एक तीर, फिर पक्षी उड़ जाता है। और फिर इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है।
इसको थोड़ा समझ लेना उचित है। दर्शनशास्त्र क्यों की तलाश करता है-ऐसा क्यों है? एक कारण मिल जाता है फिर वह पूछता है, यह कारण क्यों है? फिर दूसरा कारण मिल जाता है फिर वह पूछता है, यह कारण क्यों है? फिर इनफिनिट रिग्रेस हो जाता है। फिर अंतहीन है यह सिलसिला। और हर उत्तर नए प्रश्न को जन्म दे जाता है। हम कोई भी कारण खोज लें, फिर भी क्यों तो पूछा ही जा सकता है। ऐसा कोई कारण हो सकता है क्या, जिसके संबंध में सार्थक रूप से क्यों न पूछा जा सके? नहीं हो सकता। इसलिए दर्शनशास्त्र एक बिलकुल ही अंधी गली है।
विज्ञान नहीं पूछता-क्यों? विज्ञान पूछता है -क्या, व्हाट? इसलिए विज्ञान अंधी गली नहीं है। धर्म भी नहीं पूछता-क्यों? धर्म भी पूछता है--व्हाट, क्या? इसे समझ लेना आप।
विज्ञान और धर्म बहुत निकट हैं। विज्ञान की भी दुश्मनी अगर है, तो फिलासफी से है। और धर्म की भी अगर दुश्मनी है, तो फिलासफी से है। आमतौर से ऐसा खयाल नहीं है। लोग समझते हैं कि धर्म तो खुद ही एक फिलासफी है।
धर्म बिलकुल भी फिलासफी नहीं है। धर्म एक विज्ञान है। धर्म यह पूछता है, क्या? क्यों नहीं। क्योंकि धर्म जानता है कि अस्तित्व से क्या का उत्तर मिल सकता है। क्यों का कोई उत्तर नहीं मिल सकता। विज्ञान भी पूछता है, क्या? विज्ञान पूछता है, पानी क्या है? हाइड्रोजन और आक्सीजन। आप पूछें कि क्यों हाइड्रोजन और आक्सीजन मिलते हैं? वैज्ञानिक कहेगा, दार्शनिक से पूछो। हमारी लेबोरेटरी में हम क्या खोजते हैं। हम बता सकते हैं कि हाइड्रोजन और आक्सीजन से मिलकर पानी बनता है। क्या, हम बताते हैं। कैसे, हम बताते हैं। क्यों, कृपा करके हमसे मत पूछो। या तो पागलों से या फिलासफर से, इनसे क्यों पूछो।
वैज्ञानिक कहता है कि हम कितना ही खोजें, हम इतना ही जान सकते हैं कि क्या! और जब हमें क्या पता चल जाए, तो हम जान सकते हैं, कैसे! पानी हाइड्रोजन और आक्सीजन से मिलकर बना है, हमने जान लिया-व्हाट। अब हम खोज कर सकते हैं कि कैसे मिला है। इसलिए विज्ञान क्या की खोज करता है और कैसे को प्रयोगशाला में ढूंढ़ लेता है।
धर्म भी अस्तित्व के क्या की खोज करता है और योग में कैसे की प्रक्रिया को खोज लेता है। इसलिए धर्म का जो आनुषांगिक अंग है, वह योग है। और विज्ञान का जो आनुषांगिक अंग है, वह प्रयोग है। लेकिन धर्म का कोई संबंध नहीं है क्यों से। क्योंकि एक बात सुनिश्चित है कि हम अस्तित्व के क्यों को न पूछ पाएंगे। अस्तित्व है, और यहीं बात समाप्त हो जाती है।