ओशो वाणी

ओशो वाणी


अगर तुम पतंजलि को समझो तो जन्मों-जन्मों तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। अभ्यास बड़ा है। अष्टांगिक योग। फिर एक-एक अंग के बड़े भेद हैं। यम हैं, नियम हैं, आसन हैं, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, फिर समाधि। फिर समाधि में भी सविकल्प समाधि, निर्विकल्प समाधि, सबीज समाधि, निर्बीज समाधि, तब कहीं...इस जन्म में तो तुम सोच लो पक्का कि होने वाला नहीं। यम ही न सधेंगेय समाधि-वमाधि तो बहुत दूर है। नियम ही न सधेंगे। इसीलिए तो तुम्हारे तथाकथित योगी ज्यादा से ज्यादा आसनों में अटके रह जाते हैं। उससे आगे नहीं जाते। उससे आगे जायें कैसे? आसान ही नहीं सध पाते पूरे। आसन ही इतने हैं। आसन ही साधते-साधते जिंदगी बीत जाती है। प्राणायाम साधते-साधते जिंदगी बीत जाती है।
फिर यम-नियम कुछ छोटी-मोटी बातें नहीं हैं। अहिंसा साधो, सत्य साधो, अपरिग्रह साधो, अचैर्य साधो, ब्रह्मचर्य साधो-गये! कभी कुछ होनेवाला नहीं है। यह ब्रह्मचर्य ही ले डूबेगा। यह सत्य ही ले डूबेगा। इससे पार तुम निकल ही न पाओगे। यह फैलाव बड़ा है।
अष्टावक्र कहते हैं, इसी क्षण हो सकता। एक क्षण भी प्रतीक्षा अगर करनी पड़ती है तो किसी को दोष मत देना, तुम्हारे कारण ही करनी पड़ती है। जन्मों तक तो प्रतीक्षा का सवाल ही नहीं हैय तुम्हें करना हो तो तुम्हारी मौज। हो अभी सकता है। धन्यो विज्ञानमात्रेण मुक्तस्तिष्ठत्यविक्रियः।
क्योंकि मुक्ति में जो प्रतिष्ठा है, उसके लिए किसी क्रिया की कोई जरूरत नहींय सिर्फ समझ, सिर्फ बोध, सिर्फ प्रज्ञान।
निश्चित ही मन के सभी रोग प्रेम की कमी से पैदा होते हैं। लेकिन इस सत्य को समझना पड़े। जीवन में तीन घटनाएं हैं, जो बहुमूल्य हैंरू जन्म, मृत्यु और प्रेम। और जिसने इन तीनों को समझ लिया उसने सब समझ लिया। जन्म है शुरुआत, मृत्यु है अंत, प्रेम है मध्य। जन्म और मृत्यु के बीच जो डोलती लहर है, वह प्रेम है। इसलिए प्रेम बड़ा खतरनाक भी है। क्योंकि उसका एक हाथ तो जन्म को छूता है और एक हाथ मृत्यु को। इसलिए प्रेम में बड़ा आकर्षण है और बड़ा भय भी। प्रेम में रुआकर्षण है जीवन का, क्योंकि उससे ऊंची जीवन की कोई और अनुभूति नहीं है।
इसलिए जीसस ने तो परमात्मा को प्रेम कहा। वस्तुतः प्रेम को परमात्मा कहा। बड़ी ऊंची तरंग है उसकी। उससे ऊंची कोई तरंग नहीं। कोई गौरीशंकर प्रेम के गौरीशंकर से ऊपर नहीं जाता। इसलिए बड़ा उद्दाम आकर्षण है प्रेम का। क्योंकि प्रेम जीवन है। लेकिन बड़ा भय भी है प्रेम का, क्योंकि प्रेम मृत्यु भी है।
इसलिए लोग प्रेम करना भी चाहते हैं और बचना भी चाहते हैं। यही मनुष्य की विडंबना है। तुम एक हाथ बढ़ाते हो प्रेम की तरफ और दूसरा खींच लेते हो। क्योंकि तुम्हें जहां जीवन दिखाई पड़ता है उसी के पास लहर लेती मृत्यु भी दिखाई पड़ती है।
जो लोग जीवन और मृत्यु का विरोध छोड़ देते हैं, वे ही लोग प्रेम करने में समर्थ हो पाते हैंय जो यह बात समझ लेते हैं कि जीवन और मृत्यु विरोधी नहीं है। मृत्यु जीवन का अंत नहीं है, वरन जीवन की ही परिपूर्णता है, परिसमाप्ति है। मृत्यु जीवन की शत्रु नहीं है, वरन जीवन का सार है, निचोड़ है। मृत्यु रुजीवन को मिटाती नहीं, थके जीवन को विश्राम देती है। जैसे दिनभर के श्रम के बाद रात्रि का विश्राम है, ऐसे जीवनभर के श्रम के बाद मृत्यु का विश्राम है। मृत्यु के प्रति रुशत्रुता का भाव अगर तुम्हारे मन में है, तुम कभी प्रेम न कर पाओगे क्योंकि प्रेम में मृत्यु भी जुड़ी है। प्रेम संतुलन है जीवन और मृत्यु का, जन्म और मृत्यु का।