ओशो वाणी

न एकाग्रता करनी है, न संघर्ष करना है। दृष्टि को पैना और तीखा करना है। दर्शन की क्षमता को विकसित करना है। अगर हम विचारों के प्रति दर्शन की क्षमता को विकसित कर सके, अगर हम उनको देखने मे समर्थ हो जाएं तो वह विचार तत्क्षण मर जाता है। दर्शन विचार की मृत्यु है और दर्शन ध्यान का प्राण है।   एकांत मे ठहर जाएं। द्वार बंद करले, अकेले हो जाएं और विचारों को निमंत्रण दें कि आओ, और अपने को संयत करलें कि लड़ूंगा नही, मात्र दर्शक की भांति बैठा और देखता रहूंगा। जो भी विचार आएंगे उनको देखता रहूंगा।
धिरे - धिरे यह बात सधेगी। बुरे और भले विचार एक ही सिक्के के दो पहलु है। इनमे से एक को बचाना और दूसरे को फेंकना संभव नहीं। जो बुरे को हटाएगा और भले को रोकेगा, वह बुरे से पीड़ित रहेगा, वह बुरे से मुक्त नहीं हो सकता। वे तो अनिवार्य हिस्से है, एक दूसरे से जुड़े है। पूरे विचार को फेंका जा सकता है।
यह जो मैने आपसे आपसे कहा - शुभ विचार उठे, अशुभ विचार उठे, कुछ विचार न करें कि क्या शुभ है, क्या अशुभ है, और दोनों को चुप देखें। तो ध्यान का पहला अंग है रूदर्शन को विकसित करना, गहरी दृष्टि विकसित करना।
शुभ - अशुभ दोनो चले जाएंगे। और तब जो शेष रह जाता है वह दिव्य है। वह न शुभ है, न अशुभ है, वह भागवत है, वह डिवाइन है। उसका शुभ - अशुभ से कोई नाता नहीं। वह स्थिति धर्म की है। उसकी जो चर्या है, वैसे शून्य चित की, वही पुण्य है।


स्वभाव को उपलब्ध व्यक्ति किसी को अनुयायी बनाने के लिए उत्सुक नहीं होता कोई पीछे चले, इसमें भी उत्सुक नहीं होता। कोई उसकी माने, इसमें भी उत्सुक नहीं होता। स्वभाव को उपलब्ध व्यक्ति तो अपने आनंद में लीन होता है।
सब नेता अनुयायियों की बुद्धि को नुकसान पहुंचाने वाले होते हैं। क्योंकि जब भी कोई नेता बुरी तरह छा जाता है आपके भय और लोभ का शोषण करके तो वह आपकी चेतना को नुकसान पहुंचाता है। वह आपको सचेत नहीं करताय वह आपको बेहोश करता है। वह असल में आपसे यह कहता है कि फिक्र मत करो, तुम्हें करने की कोई जरूरत नहीं तुम सब मुझ पर छोड़ दो, मैं कर लूंगा। और आप डरे हुए होते हैं, इसलिए लगता है कि ठीक है, कोई और सम्हाल ले सारी जिम्मेवारी तो अच्छा है। नेता जिम्मेवारी सम्हाल लेता है। कोई नेता जिम्मेवारी पूरी नहीं कर पाता लेकिन सम्हाल लेता है। सम्हालने से वह बड़ा हो जाता है उसके अहंकार की तृप्ति हो जाती है। लेकिन वह हानि पहुंचाता है। क्योंकि लोगों का चैतन्य बढ़ना चाहिए, घटना नहीं चाहिए। उनका दायित्व बढ़ना चाहिए, घटना नहीं चाहिए। उनका होश बढ़ना चाहिए, घटना नहीं चाहिए। और अपनी समस्याओं को खुद हल करने की हिम्मत बढ़नी चाहिए, कम नहीं होनी चाहिए।
इसलिए असली गुरु वह नहीं है जो आपकी समस्याएं अपने सिर पर ले लेता है। असली गुरु वह है जो आपकी समस्याएं जरा भी अपने सिर पर नहीं लेता, और आपको इस स्थिति में छोड़ता है कि आप इस योग्य बन जाएं कि अपनी समस्याएं हल कर लें। क्योंकि समस्याएं आप हल करेंगे तो ही आपका विकास है। कोई समस्या दूसरा हल कर देगा तो आपका कोई विकास नहीं है। दूसरे के हल के द्वारा समस्या भला हल हो जाए, आपकी हानि हो गई। आप एक विकास के अवसर से चूक गए। इसलिए जो नेता जिम्मेवारी ले लेते हैं, जो गुरु जिम्मेवारी ले लेते हैं, वे नुकसान पहुंचाते हैं।