ध्यान का अर्थ

ध्यान का अर्थ


तुम्हारा तादात्म्य छूट जाए-उन सब चीजों से जो तुम्हारे आसपास घटती हैं लेकिन तुम नहीं हो। जैसे दर्पण के सामने से कोई गुजरा, एक सुंदर स्त्री गुजरी और दर्पण ने कहा, अहह, मैं कितना सुंदर हूं! यह तादात्म्य। एक कुरूप आदमी निकला और दर्पण सिकुड़ गया और मन ही मन बेचैन हो उठा और बड़ी ग्लानि लगी कि मैं भी कैसा कुरूप! यह तादात्म्य। लेकिन सुंदर स्त्री निकली कि कुरूप पुरुष निकला, दर्पण चुपचाप देखता रहा, झलकता रहा, जो भी निकला उसको झलकाता रहा और जानता रहा कि मैं तो दर्पण हूं, जो भी मेरे सामने आता है उसका प्रतिबिंब बनता है-यह साक्षी भाव, यह ध्यान। दुख आया, तुम दुखी हो गए-ध्यान चूक गया। सुख आया, तुम सुखी हो गए-ध्यान चुक गया। दुख आया, आने दो, जाने दोय सुख आया, आने दो जाने दो-तुम दर्पण रहो। तुम देखो भर। तुम इतना कहो कि अभी दुख है, अभी सुख है अभी सुबह, अभी सांझ अभी रोशनी थी, अब अंधेरा हो गया अभी बसंत था, अब पतझड़ आ गया अभी जिंदगी थी, अब मौत आ गयी तुम बस देखते रहो, और जो भी तुम देखो, उसके साथ एक मत हो जाओ, एकाकार मत हो जाओ। बस इतनी सी ही कला है ध्यान की! और जो ध्यान को उपलब्ध हो गया, वह योग को उपलब्ध हो गया। क्योंकि जिसने अपने आस पास घटती हुई घटनाओं से संबंध तोड़ लिया, उसका संबंध उस परम परमात्मा से जुड़ जाता है जो भीतर छिपा बैठा है। तुम दो में से एक से ही जुड़ सकते हो-या तो संसार से, जो तुम्हारे चारों तरफ है या परमात्मा से, जो तुम्हारे भीतर है।