देव, पत्थर

‘मानिए तो देव, नहीं तो पत्थर।’ 


क्या सब मानने की ही बात है? मैं कहावत को थोड़ा सा बदलना चाहूंगा ‘जानिए तो देव, नहीं तो पत्थर।’ मानने से तो पत्थर पत्थर ही रहता है सिर्फ तुम्हारी आंखें भ्रम से भर जाती हैं सिर्फ तुम पत्थर में देवता को देखने लगते हो, मानने से पत्थर में अंतर नहीं पड़ता मानने से तो सिर्फ तुम्हारी आंख का चश्मा बदल जाता है। तुमने रंगीन चश्मा आंख पर रख लिया तो सभी चीजें रंगीन दिखाई पड़ने लगती हैं लेकिन सभी चीजें रंगीन हो नहीं गईं। तुम चश्मा उतार कर रख दोगे, चीजें फिर रंगहीन हो जाएंगी। चीजें तो जैसी हैं वैसी ही हैं। हिंदू मंदिर में गएय यदि तुम मुसलमान हो तो पत्थर पत्थर ही रहता है, क्योंकि तुम्हारी आंख पर हिंदू का चश्मा नहीं है। यदि तुम हिंदू हो तो पत्थर देवता मालूम होता है क्योंकि तुम्हारी आंख पर हिंदू का चश्मा है। अगर तुम जैन मंदिर में गए तो महावीर की मूर्ति पत्थर ही बनी रहती है, देवत्व उसमें प्रकट नहीं होताय तुम्हारी आंख पर जैन का चश्मा नहीं है। 
मानने से तो सिर्फ चश्मे बदलते हैं। मानने के धोखे में मत पड़ना। जानने की यात्रा करो। जानो तो निश्चित देव ही है, पत्थर तो है ही नहीं। मूर्तियों में ही नहीं, पहाड़ों में भी जो पत्थर है वहां भी देवता ही छिपा है। जानने पर तो परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ बचता ही नहीं है। जाना कि परमात्मा के द्वार खुले हैं-हर तरफ से, हर दिशा से, हर आयाम से। कंकड़-कंकड़ में वही। तृण-तृण में वही। पल-पल में वही। लेकिन जानने से। 
विश्वास से शुरू मत करना बोध से शुरू करो।